श्री भगवद्गीता का सारतत्त्व – अध्याय ४ (ज्ञान योग)

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

श्री भगवद्गीता – प्रस्तावना

<<अध्याय ३

गीतार्थ संग्रह के आठवें श्लोक में, आळवन्दार चौथे अध्याय का सारांश समझाते हुए कहते हैं, “चौथे अध्याय में, कर्म योग (जिसमें ज्ञान योग भी शामिल है) जिसे ज्ञान योग के रूप में ही समझाया गया है, कर्म योग की प्रकृति और उप-विभाजन, सच्चे ज्ञान की महानता और (शुरुआत में, उनके शब्दों की प्रामाणिकता स्थापित करने के लिए) उनके उन गुणों (जो उनके अवतारों के समय  भी नहीं बदलते हैं) पर आकस्मिक प्रवचन की व्याख्या की गई है। “

मुख्य श्लोक / पद

श्लोक / पद १

श्री भगवान उवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।।

भगवान श्री कृष्णा ने कहा , मैं इस कर्म योग को सूर्य को सिखाया था। सूर्य ने मनु को सिखाया था । मनु उसके पुत्र इक्ष्वाकु को सिखाया था ।

टिप्पणी : कृष्ण पहले तीन श्लोकों में अपनी प्राचीन प्रकृति और अपनी शिक्षाओं की प्रामाणिकता स्थापित करते हैं। वह यह भी बताते हैं कि जो ज्ञान परंपरा के माध्यम से प्रसारित होता था वह समय के साथ लुप्त हो गया। चौथे श्लोक में, अर्जुन पूछते हैं कि कृष्ण ने यह ज्ञान बहुत पहले कैसे सिखाया होगा, जबकि वह अभी भी उपस्थित हैं। इसके लिए, कृष्ण अगले चार श्लोकों में अपने अवतारों के बारे में गोपनीय ज्ञान बताते हुए उत्तर देते हैं ।

श्लोक / पद ५ 

श्री भगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ।।

श्री कृष्ण ने जवाब दिया, हे अर्जुन ! तुम्हारी तरह मेरे लिए भी अनगणित जन्मों बीत चुके हैं। हे शत्रुओं का उत्पीड़क ! मैं उन सभी जन्मों ( तुम्हारे और मेरे ) को जानता हूँ और तुम उनको नहीं जानते।

टिप्पणी :भगवान अपनी सर्वोच्च प्रकृति और अर्जुन की निम्न प्रकृति को स्पष्ट  करते हैं।

श्लोक / पद ६  

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ।।

जन्महीन और अविनाशी होने के कारण, सभी प्राणियों के भगवान होने के कारण , मैं अपनी इच्छा से  (आध्यात्मिक)विलक्षण रूप स्वीकार करते हुए कई जन्मों में अवतरित होता हूँ।

टिप्पणी :जब भगवान इस संसार में अवतरित होते हैं, ह उनकी इच्छा से होता है, और वे अपने आध्यात्मिक रूप के साथ अवतरित होते हैं।

श्लोक / पद ७  

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।

हे भरतवंशी ! जब भी धर्म की क्षीणता होता है और अधर्म का उत्थान होता है, तब मैं अपने आप को रच लेता हूँ ( विभिन्न अवतारों में स्वयं को प्रकट करता हूँ) ।

टिप्पणी :भगवान अपनी इच्छा से, जब भी उनको लगे कि यह आवश्यक है, अवतार लेते हैं।

श्लोक / पद ८ 

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।।

हर एक युग में , साधू संतों की रक्षा करने , दुष्टों की उत्पीड़न और नाश करने और धर्म  (नैतिक गुण ),की दृढ़ता से स्थापना करने के लिए मैं विविद प्रकार से जन्म लेता हूँ |

टिप्पणी :यद्यपि उनके अवतार के लिए तीन कारणों की पहचान की जाती है, उनके लिए अपने दिव्य रूप को प्रकट करके पुण्यात्माओं की रक्षा करना ही मुख्य लक्ष्य माना जाता है, क्योंकि अन्य दो पहलुओं को अवतार लिए बिना, केवल अपने दिव्य संकल्प से उनके द्वारा पूरा किया जा सकता है।

श्लोक / पद ९ 

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत: ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ।।

हे अर्जुन! जो कोई भी मेरे आध्यात्मिक/दिव्य अवतारों और क्रियाओं  पर ध्यान करता है (यथार्थ में) जैसे  पहले बताया गया है, वर्तमान शरीर को त्यागने के बाद वह फिर से जन्म नहीं लेता है (दूसरे भौतिक शरीर को  न स्वीकार  करना ), लेकिन वह मुझे प्राप्त कर लेता है।

टिप्पणी :भगवान के अवतारों और गतिविधियों के बारे में सच्चा ज्ञान अपने आप में भगवान को प्राप्त करने का एक साधन है।

श्लोक / पद ११ 

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: ||

मैं उन लोगों तक पहुंचता हूँ जो मेरे प्रति समर्पण करते हैं, जिस प्रकार वे मेरी कामना करते हैं उसी प्रकार जैसे उनकी कामना थी (मुझे उपलब्ध कराते हुए)। हे पृथा(कुंती) के पुत्र! सभी लोग मेरे गुणों का हर प्रकार से आनंद लेते हुए जीवन जीते हैं।

टिप्पणी :अर्चा विग्रह (मंदिर के मूर्तियाँ ) जो भक्तों की इच्छाओं के अनुसार स्थापित किए जाते हैं, (के ओर )यहां संकेत है। अगले श्लोक में, भगवान बताते हैं कि कैसे जिन लोगों ने उनके अवतारों का सच्चा ज्ञान प्राप्त कर लिया है, उन्हें मुक्ति मिलेगी।

अगले छह श्लोकों में, वे कर्मयोग का परिचय देते हैं जिसमें ज्ञान भी सम्मिलित है।

श्लोक / पद १३

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश: |
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ||

समस्त जगत, जो चार वर्णों के अध्यक्ष में है, मेरे द्वारा , जो सर्वेश्वर हूँ , गुणों ( स्वभाव ) के आधारित वर्गीकरण जैसे सत्व , रजस और तमस तथा कर्मों ( क्रिया ) के आधारित वर्गीकरण जैसे शम ( मन का नियंत्रण ), दम ( इन्द्रियों का नियंत्रण ) से निर्माण किया गया है | मैं इस विलक्षण सृष्टि इत्यादि का सृष्टिकर्त्ता हूँ लेकिन जानो कि मैं इस जगत के विभिन्न गुणों ( ऊँच – नीच ) इत्यादि के सृष्टिकर्त्ता नहीं हूँ और इस कारण दोषरहित हूँ |

टिप्पणी : इस श्लोक का संदर्भ वर्ण विभाजन की व्याख्या करना नहीं है, लेकिन  यह स्थापित करना है कि भगवान विविध सृष्टि से अप्रभावित हैं। वर्ण केवल शरीर के लिए विशिष्ट है, आत्मा के लिए नहीं, इसलिए हमारे गुरुओं ने कभी भी वर्ण बदलने का प्रयास नहीं किया। इसके बदले  उन्होंने भगवान के प्रति सच्ची भक्ति विकसित की और उनकी शाश्वत सेवा पर ध्यान केंद्रित किया।

अगले कुछ श्लोकों में, भगवान बताते हैं कि कैसे कर्म योग भी ज्ञान का एक रूप है।

श्लोक / पद २२ 

यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः ।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥

यदि कोई अपने रास्ते में आने वाली हर वस्तु (अपने शरीर को बनाए रखने के लिए) से संतुष्ट है , जोड़ियों  (सुख-दुख, गर्मी-सर्दी आदि) को सहन कर , ईर्ष्या (दूसरों के प्रति) से मुक्त , सफलता और विफलता में समान भाव रखते हुए  कर्म में (यहां तक ​​कि बिना  ज्ञान योग के भी) लीन हो, ऐसा व्यक्ति (संसार के इस बंधन में) नहीं बंधेगा।

अगले श्लोक में बताया गया है कि जो व्यक्ति फल की आसक्ति के बिना यज्ञ जैसे कर्म करता है, उसका पुण्य/पाप पूरी तरह से नष्ट हो जाता है।

शेष श्लोकों में कर्मयोग के प्रकार और कर्मयोग के अंग ज्ञान की महिमा के बारे में बताया गया है।

श्लोक / पद ३४ 

तद्विध्दि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं  ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ॥

उचित रीति से प्रणाम करके, उचित भाव से प्रश्न पूछकर तथा सेवा करके उस दिव्य ज्ञान को  ज्ञानियों से जानो; जिन ज्ञानियों को आत्मज्ञान का एहसास  हो गया है, वे (तुम्हारी पूजा आदि से प्रसन्न होकर) तुम्हें आत्मज्ञान के बारे में उपदेश देंगे।

टिप्पणी: यहाँ किसी प्रामाणिक गुरु से विनम्रतापूर्वक सीखने के महत्व पर बल  दिया गया है।

श्लोक / पद ३८ 

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं  योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति ॥

इस संसार में आत्मज्ञान के समान पवित्र करने वाली कोई वस्तु नहीं है। जिसने (पहले उल्लेखित) कर्मयोग में पूर्णता का ऐसा ज्ञान प्राप्त कर लिया है, उसे समय के साथ स्वयं का एहसास हो जाता है।

श्लोक / पद ४२ 

तस्मादज्ञानसम्भूतं  हृत्स्थं  ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्त्वैनं  संशयं  योगमातिष्ठोत्तिष्ठ  भारत ॥

हे भरत वंश के वंशज! चूँकि पहले बताए गए कर्मयोग (बिना ज्ञान के केवल कर्म में संलग्न रहना) से कोई मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता है, अत: ज्ञान की तलवार से इस आत्मा से संबंधित मामलों पर दिल में उपस्थित संदेह को काट डालो, उठो और कर्मयोग में संलग्न हो जाओ।

टिप्पणी: इस प्रकार, ज्ञान की महानता, जो कर्म योग का एक महत्वपूर्ण अंग है, यहाँ समझाया गया था।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी

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