२.५ – गुरूनहत्वा हि महानुभावान्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय २

<<अध्याय २ श्लोक ४

श्लोक

गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान्‌ रुधिरप्रदिग्धान्‌ ॥

पद पदार्थ

महानुभावान् – आदरणीय
गुरून्‌ – गुरूजन ( जैसे भीष्म तथा द्रोण )
अहत्वा – बिना मारे
इह लोके – इस संसार में
भैक्ष्यं भोक्तुं अपि – भीख माँगकर खाना
श्रेय: हि – क्या बेहतर नहीं है?
अर्थ कामान्‌ – धन दौलत पर अत्यधिक लगाव
गुरून्‌ हत्वातु – गुरुजनों को मारके
रुधिरप्रदिग्धान्‌ – उनके लहू से दूषित होकर
भोगान्‌ – ( उनके ) खुशियों
इह एव – उनके भूमि में खड़े होकर
कथं भुञ्जीय – कैसे आनंद ले सकते हैं ?

सरल अनुवाद

क्या इस संसार में भीख माँगकर खाना, आदरणीय गुरुजनों ( जैसे भीष्म और द्रोण ) को मार डालने से बेहतर नहीं है ? धन दौलत पर अत्यधिक लगाव के कारण, गुरुजनों को मारके, उनके ही भूमि में खड़े होकर, उनके लहू से दूषित होकर, ( उनके ) खुशियों का भोग कैसे ले सकते हैं ?

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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