श्री भगवद्गीता का सारतत्व – अध्याय १ (अर्जुन विषाद योग)

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

श्री भगवद्गीता का सारतत्त्व

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गीतार्थ संग्रह के पांचवे श्लोक में स्वामी आळवन्दार् ( यामुनाचार्य ) , भगवद्गीता के पहले अध्याय की सार को दयापूर्वक समझाते हैं , ” अर्जुन , अपने मन में धार्मिक युद्ध को अधार्मिक समझकर, अयोग्य रिश्तेदारों को अपने स्नेह और करुणा का पात्र बनाकर , बहुत ही घबरा गया था | भगवान इस गीता शास्त्र का प्रारम्भ , अर्जुन को युद्ध करवाने के लिए किया था | “

सर्वेश्वर, जो श्रीमहालक्ष्मी के दिव्य पति हैं , के दो स्वरुप हैं – सभी दोष के प्रतिकूल और सभी मंगल गुणों के निवास स्थान | उनके अधिकार में दो विश्व हैं – नित्य विभूति जिसे परमपद कहते हैं और लीला विभूति जिसे संसार कहते हैं | वे नारायण, पुरुषोत्तम, परब्रह्म आदि नाम से जाने जाते हैं | उन्होंने अपने दिव्य मुख खोलकर इस गीता शास्त्र को दयापूर्वक समझाया है ताकि इस संसार में बद्धित जीवात्मा का उत्थान हो सके | उनके द्वारा इस शास्त्र को दयापूर्वक समझाया गया शैली बहुत ही अद्भुत है |

पहले, वे एक दूत बनकर गए और इस विषय को सुनिश्चित किया कि पांडवों और दुर्योधन के बीच का युद्ध घटे | उसके बाद युद्ध में अर्जुन के सारथी बने | फिर, जब सेनाएं युद्धक्षेत्र में लड़ने के लिए इकट्ठे हो गए तो, अर्जुन, जो लड़ने के लिए तैयार था, के आदेश के अनुसार , रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा किया | जब अर्जुन पितामह भीष्म , द्रोणाचार्य आदि को वहां इकट्ठे हुए देखा तो व्याकुल हो पड़ा | वो इतना व्याकुल हो गया कि युद्ध की प्रयोजन पर प्रश्न उठाने लगा और भगवान से बहस करने लगा और युद्ध के बुरे प्रभाव के बारे में समझाने लगा |

इन सभी घटनाओं को संजय, जो श्रीकृष्ण के भक्त थे , उनके गुरु व्यास के अनुग्रह से देख सके और इन सभी अवस्थाओं को अपने आंतरिक दृष्टी से स्पष्ट रुप में देखकर, धृतराष्ट्र को सुनाते हैं |

यह सब, गीता शास्त्र के पहले अध्याय में उपस्थित है |

मुख्य श्लोक

श्लोक १

धृतराष्ट्र उवाच

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव: |
मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ||

धृतराष्ट्र ने कहा – हे संजय! युद्ध करने की इच्छा से कुरुक्षेत्र की धार्मिक भूमि में एकत्रित होकर, मेरे पुत्रों और पांडु के पुत्रों ने क्या किया?

टिप्पणी – अपने पुत्रों को पांडवों से अलग करके, धृतराष्ट्र का अपने पुत्रों के प्रति पक्षपात प्रकाशित होता है |

श्लोक १९

स घोषो धार्तराष्ट्राणां ह्रुदयानि व्यदारयत् ।
नभश्च पृथिवीम् चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ॥

शंखों के एक साथ बजने से उठा जो गूँज सम्पूर्ण आकाश और पृथ्वी को भर दिया, वही गूँज धृतराष्ट्र पुत्रों के हृदय को चूर चूर कर दिया।

टिप्पणी – यहीं श्रीकृष्ण के शंख से उठा ध्वनि , दुर्योधन इत्यादि के हार और विनाश को सुनिश्चित कर दिया |

श्लोक २१

हृषीकेशं तदा वाक्यं इदमाह महीपते ।
अर्जुन उवाच –
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥

(संजय ने कहा) हे  पृथ्वी के नेता (धृतराष्ट्र,)!  अर्जुन ने कृष्ण से इस प्रकार (इस) वाक्य  कहा “हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं  के बीच  खड़ा करें।”

टिप्पणी – अर्जुन के प्रति कृष्ण की अधीनता , उनके आश्रित पारतंत्र्य ( भक्तों के प्रति उनका आज्ञानुवर्तित्व स्वभाव ) का एक प्रत्यक्षीकरण है

श्लोक २८

कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्‌ ।
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्‌ ৷৷

दया से अभिभूत होकर तथा दुःखित होकर अर्जुन ने कृष्ण से कहा ,” हे कृष्ण ! मेरे ही रिश्तेदार युद्ध करने की इच्छा से मेरे सामने खड़े हुए देखकर….”

श्लोक २९

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ৷৷

मेरे अंग कमज़ोर हो रहे हैं , मेरा मुँह पूरी तरह से सूख गया है , मेरा तन काँप रहा है और मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं |

श्लोक ३०

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्‌ त्वक चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ৷৷

मेरा धनुष गाण्डीव मेरे हाथ से सरक रहा है , मेरा शरीर भी पूरी तरह से जल रहा है , स्थिर से खड़े होना भी असम्भव लग रहा है ; और मेरा मन भी भटक रहा है |

टिप्पणी – इन तीन श्लोक में अर्जुन अपने परिजनों और आचार्यों को देखकर अपना तन और मन निर्बल होने के बारे में बात करता है , और उसका ह्रदय उनके प्रति करुणा से भर जाता है |

श्लोक ४७

संजय उवाच

एवमुक्त्वार्जुनः सङ्‍ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्‌ ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ৷৷

इस प्रकार बोलकर अर्जुन शोकग्रस्त मन से , अपने धनुष और तीर को नीचे छोड़कर , युद्धक्षेत्र में अपने रथ पर बैठ गया | इस प्रकार संजय ने धृतराष्ट्र से कहा |

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अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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