श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
गीतार्थ संग्रह के पांचवे श्लोक में स्वामी आळवन्दार् (यामुनाचार्य), भगवद्गीता के पहले अध्याय के सार को दयापूर्वक समझाते हैं , “अर्जुन, अपने मन में धर्म युद्ध को अधर्म मानकर, अनर्ह बन्धुओं को अपनी स्नेह और करुणा का पात्र बनाकर, अत्यन्त विचलित हो गया था| भगवान ने इस गीता शास्त्र का प्रारम्भ, अर्जुन को युद्ध करवाने के लिए किया था|”
सर्वेश्वर, जो श्रीमहालक्ष्मी के दिव्य पति हैं, के दो स्वरूप हैं – समस्त दोषों के विरोधी और समस्त कल्याणकारी गुणों के आश्रय हैं | उनके अधिकार में दो विश्व हैं – नित्य विभूति जिसे परमपद कहते हैं और लीला विभूति जिसे संसार कहते हैं | वे नारायण, पुरुषोत्तम, परब्रह्म आदि नाम से जाने जाते हैं | उन्होंने अपने दिव्य मुख खोलकर इस गीता शास्त्र को दयापूर्वक समझाया है ताकि इस संसार में बद्धित जीवात्मा का उत्थान हो सके | उनके द्वारा इस शास्त्र को दयापूर्वक उपदेश देने की शैली बहुत ही अद्भुत है |
पहले, वे एक दूत बनकर गए और यह सुस्थापित किया कि अवश्य पांडवों और दुर्योधन के बीच युद्ध घटे | उसके पश्चात युद्ध में अर्जुन के सारथी बने | तदुपरान्त, जब सेनाएँ युद्धक्षेत्र में लड़ने के लिए एकत्र हो गईं तो, अर्जुन के आदेशानुसार, जो लड़ने के लिए सज था, रथ को दोनों सेनाओं के मध्य में स्थापित किया | जब अर्जुन पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य आदि को वहाँ एकत्रित देखा तो व्याकुल हो पड़ा | वो इतना व्याकुल हो गया कि युद्ध के प्रयोजन पर प्रश्न करने लगा और भगवान से तर्क करने लगा और विनाशकारी प्रभावों के विषय में बताने लगा |
इन सभी घटनाओं को संजय, जो श्रीकृष्ण के भक्त थे, उनके गुरु व्यास के अनुग्रह से देख सके और इन सभी अवस्थाओं को अपने आंतरिक दृष्टि से स्पष्ट रूप में देखकर, धृतराष्ट्र को सुनाते हैं |
यह सब, गीता शास्त्र के पहले अध्याय में प्रस्तुत है |
मुख्य श्लोक
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव: |
मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ||
धृतराष्ट्र ने कहा – हे संजय! युद्ध करने की इच्छा से कुरुक्षेत्र की धार्मिक भूमि में एकत्रित होकर, मेरे पुत्रों तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?
टिप्पणी – अपने पुत्रों को पाण्डवों से अलग करके, धृतराष्ट्र का अपने पुत्रों के प्रति पक्षपात प्रकाशित होता है |
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् ।
नभश्च पृथिवीम् चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ॥
शंखों के एक साथ बजने से उठा जो घोष सम्पूर्ण आकाश और पृथ्वी को भर दिया, वही घोष धृतराष्ट्र पुत्रों के हृदय को विदीर्ण कर दिया।
टिप्पणी – इसी क्षण कृष्ण के शंख से उठे घोष ने दुर्योधन इत्यादि के हार और विनाश को सुस्थापित कर दिया|
हृषीकेशं तदा वाक्यं इदमाह महीपते ।
अर्जुन उवाच –
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥
(संजय ने कहा) हे पृथ्वी के नेता (धृतराष्ट्र,)! अर्जुन ने कृष्ण से इस प्रकार (इस) यह वचन कहा “हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के मध्य खड़ा करें।”
टिप्पणी – अर्जुन के प्रति कृष्ण की अधीनता , उनके आश्रित पारतन्त्र्य (भक्तों के प्रति उनका आज्ञानुवर्तित्व स्वभाव) का एक प्रत्यक्ष प्रमाण है
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ।
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ৷৷
दया से अभिभूत होकर तथा दुःखित होकर अर्जुन ने कृष्ण से कहा , “हे कृष्ण ! मेरे ही बन्धुओं को युद्ध करने की इच्छा से मेरे सामने खड़े हुए देखकर….”
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ৷৷
मेरे अंग बलहीन हो रहे हैं, मेरा मुँह पूरी तरह से सूख गया है , मेरा शरीर काँप रहा है और रोमाञ्च हो रहा है |
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात् त्वक चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ৷৷
मेरा धनुष गाण्डीव मेरे हाथ से सरक रहा है , मेरा शरीर भी पूरी तरह से जल रहा है , स्थिरता से खड़े होना भी असम्भव लग रहा है ; और मेरा मन भी भटक रहा है |
टिप्पणी – इन तीन श्लोक में अर्जुन अपने परिजनों और आचार्यों को देखकर अपना शरीर और मन निर्बल होने के बारे में बात करता है , और उसका हृदय उनके प्रति करुणा से भर जाता
संजय उवाच
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ৷৷
इस प्रकार कहकर अर्जुन शोकग्रस्त मन से , अपने धनुष और बाण को गिराकर , युद्धक्षेत्र में अपने रथ पर बैठ गया | इस प्रकार संजय ने धृतराष्ट्र से कहा |
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अडियेन् जानकी रामानुज दासी
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