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२.६४ – रागद्वेश वियुक्तैस् तु

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श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय २

<< अध्याय २ श्लोक ६३

श्लोक

रागद्वेश वियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥

पद पदार्थ

रागद्वेश विमुक्तै: (वियुक्तै:) – इच्छा और द्वेष से मुक्त होकर  (मेरी (कृष्ण की) कृपा से)
आत्मवश्यै: – स्वयं के वश में होना
इन्द्रियैः- इन्द्रियाँ
विषयान् – विषय वस्तु जैसे ध्वनि आदि
चरन् – लाँघना
विधेयात्मा – अपने मन को नियंत्रित किया हुआ मनुष्य 
प्रसादम् – विचारों की स्पष्टता
अधिगच्छति – प्राप्त करता है

सरल अनुवाद

राग द्वेष (मेरी (कृष्ण की) कृपा से) दूर होकर, मन को वश में करने वाले इन्द्रियों से, ध्वनि आदि इन्द्रिय वस्तुवों को लाँघ कर, मन को नियंत्रित करने वाला मनुष्य, विचारों की स्पष्टता प्राप्त करता है।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी

>> अध्याय २ श्लोक ६५

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२.६३ – क्रोधाद्भवति सम्मोहः

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श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय २

<< अध्याय २ श्लोक ६२

श्लोक

क्रोधाद्भवति सम्मोहः  सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद्  बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति ॥

पद पदार्थ

क्रोधात् – उस क्रोध के कारण
सम्मोहः-  मन का भ्रम 
भवति– होती है
सम्मोहात् – उस भ्रम के कारण
स्मृतिविभ्रम: (भवति) – स्मृति की नाश होती है
स्मृतिभ्रंशाद् – स्मृतिनाश से
बुद्धिनाशा : (भवति) – बुद्धि का नाश
बुधिनाशात् – बुद्धि के नाश के कारण
प्रणश्यति – वह स्वयं नष्ट हो जाता है (इस संसार में डूब कर)

सरल अनुवाद

उस क्रोध के कारण मन भ्रमित होता है; मनोभ्रंश के कारण स्मृति नष्ट  होती है; स्मृति के नाश  के कारण बुद्धि का नाश होता है; बुद्धि के नाश के कारण, वह  स्वयं ,(इस संसार  में डूब कर) नष्ट हो जाता है ।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी

>> अध्याय २ श्लोक ६४

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