श्री भगवद्गीता का सारतत्व – अध्याय ७ (विज्ञान योग)

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

श्री भगवद्गीता – प्रस्तावना

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गीतार्थ संग्रह के ग्यारहवे श्लोक में स्वामी आळवन्दार् , भगवद्गीता के सातवे अध्याय की सार को दयापूर्वक समझाते हैं , ” सातवे अध्याय में , परमपुरुष का वास्तविक स्वरूप अर्थात् वही उपासना ( भक्ति ) के वस्तु हैं , वह छुपी ( जीवात्मा के लिए ) हुई अवस्था ( भगवान के बारे में ज्ञान) , भगवान के प्रति समर्पण ( जो इस तरह के छिपाव को हटाता है ) , चार प्रकार के भक्त और ( इन चार प्रकार के भक्तों में ) ज्ञानी की महिमा बताई गई है |

मुख्य श्लोक / पद

श्लोक / पद १

श्री भगवान् उवाच
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं  युञ्जन्मदाश्रय : ।
असंशयं  समग्रं  मां  यथा  ज्ञास्यसि तच्छृणु  ॥

भगवान श्री कृष्ण ने कहा :
हे कुन्तीपुत्र! तुम जो मुझमें अत्यंत आसक्त मन रखकर और मुझ पर आश्रय करके भक्ति योग का आरंभ करते हो, उस ज्ञान के बारे में मेरी बात ध्यान से सुनो जिसके माध्यम से तुम मेरे (जो उस योग का लक्ष्य है)  बारे में पूरी तरह से जान सकते हो।

टिप्पणी यहाँ, भगवान श्री कृष्ण, ध्यानपूर्वक और ईमानदारी से सुनने की महत्वता को बताते हुए शुरू करते हैं | अगले श्लोक में , वे विशिष्ट रूप से दर्शाते हैं कि अर्जुन को केवल कृष्ण के बारे में जानने की आवश्यकता है और कुछ जानने को नहीं है |

श्लोक / पद ३

मनुष्याणां  सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ॥

हजारों लोगों में से , जो शास्त्र सीखने योग्य हैं, केवल एक ही मुक्ति प्राप्त होने तक लगातार प्रयास करता रहता है। उन हजारों (जो निरंतर पूर्णता के मार्ग पर चलते हैं) में से केवल एक ही वास्तव में मुझे जानता है।

टिप्पणी – कृष्ण इस ज्ञान की प्रशंसा करते हैं और कहते हैं कि इसे प्राप्त करना बहुत कठिन है |

श्लोक / पद ४

भूमिरापोऽनलो वायुः खं  मनो बुद्धिरेव  च ।
अहङ्कार  इतीयं  मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥

यह जान लो  कि यह भौतिक प्रकृति  जो तत्वों की निम्नलिखित आठ श्रेणियों का गठन  है, अर्थात् पाँच महान तत्व, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश, मन (और अन्य इंद्रियाँ), महान तत्व और अहङ्कार (जो मूल प्रकृति को दर्शाता है ) और  प्रकृति (प्रारम्भिक पदार्थ)), मेरा है।

टिप्पणी – पहले , कृष्ण सभी अचेतन सत्ताओं को अपनी संपत्ति बताते हैं |

श्लोक / पद ५

अपरेयमितस्त्वन्यां  प्रकृतिं  विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां  महाबाहो ययेदं  धार्यते जगत् ॥

हे शक्तिशाली भुजाओं वाले ! यह अचेतन भौतिक प्रकृति हीन है; जान लो कि वह [आध्यात्मिक] पदार्थ जिसे जीव कहा जाता है, जो भौतिक प्रकृति से भिन्न और श्रेष्ठ है, मेरा है; इस जीव (अर्थात् जीवात्माओं का संग्रह) के द्वारा ही यह ब्रह्मांड कायम है।

टिप्पणी – कृष्ण जीवात्माओं के माध्यम से सभी वृत्तियों को कायम रखते हैं | प्रत्येक अचेतन वस्तु जिसे हम देखते हैं उसमें एक जीवात्मा का निवास है, जिसके अंदर अन्तर्यामी के रूप में भगवान हैं | अगले श्लोक में श्री कृष्ण कहते हैं कि वे हर वस्तु का मूल और अंत हैं |

सातवे श्लोक में कहते हैं , ” मुझसे बढ़कर कोई भी अस्तित्व में नहीं है ; एक डोरी में बंधे रत्नों की तरह ये सभी वस्तुएँ मुझ पर टिकी हुई हैं |


आठवे से बारहवे श्लोक तक वे बताते हैं कि वे कई प्रकार के वस्तुओं के सभी विशेष पहलुओं का नियंत्रक हैं | हालाँकि उनका कहना है कि वे, वह विशेष पहलू हैं , यह समझना चाहिए कि वे ऐसे पहलुओं का मूल हैं |

तेरहवे श्लोक में वे बताते हैं कि यद्यपि वे हर वस्तु का मूल हैं, तीन गुणों ( सत्व , रजस, तमस) से युक्त भूतों से मोहित होने के कारण, इस संसार के लोग उन्हें समझ नहीं पाते हैं |

श्लोक / पद १४

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया |
मामेव ये प्रपध्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ||

यह भौतिक प्रकृति/क्षेत्र जो मेरा है और तीन गुणों (सत्व, रज, तम) से भरा है, इसे पार करना (किसी भी व्यक्ति के प्रयास से) कठिन है क्योंकि यह मेरे द्वारा जो देव (भगवान) है, बनाया गया है। जो लोग केवल मेरे प्रति समर्पण करते हैं,  वे इस भौतिक प्रकृति/क्षेत्र को [मेरी कृपा से] पार कर जायेंगे।

टिप्पणी – इस श्लोक में भगवान शरणागति की महिमा को समझाते हैं |

श्लोक / पद १५

न मां दुष्कृतिनो मूढा: प्रपध्यन्ते नराधमा : |
माययाऽपह्रतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता : ||

मूर्ख, मनुष्यों में निम्नतम, (अतार्किक तर्क आदि) माया द्वारा नष्ट किया गया ज्ञान वाले और आसुरी स्वभाव वाले ये चार प्रकार के पापी हैं (जो अपने उल्लेख के क्रम में पिछले पापियों से भी बड़े हैं) जो  मुझे समर्पण नहीं करते हैं |

टिप्पणी – यहाँ चार प्रकार के प्रतिकूल व्यक्तियों पर प्रकाश डाला गया है |

श्लोक / पद १६

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥

हे अर्जुन ! जो भरत वंशजों में श्रेष्ठ है ! चार प्रकार के धार्मिक लोग ,अर्थात् जो दुःखी हो ( धन की हानि से ) , जो (नये ) धन की इच्छा रखता हो, जो आत्मा का आनंद लेना चाहता है और जिसके पास सच्चा ज्ञान है, मेरी पूजा करते हैं |

टिप्पणी – यहाँ चार प्रकार के अनुकूल व्यक्तियों पर प्रकाश डाला गया है |

श्लोक / पद १७

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थम् अहं स च मम प्रियः ॥

इन चारों में , ज्ञानी जो हमेशा मेरे साथ एकजुट रहता है और विशेष रूप से मेरे प्रति समर्पित है, सबसे श्रेष्ट है | ऐसे ज्ञानी के लिए , मैं बहुत प्रिय हूँ और वह भी मुझे बहुत प्रिय है |

टिप्पणी – यहाँ ज्ञानी ( एक अत्यंत समर्पित भक्त ) की महानता पर प्रकाश डाला गया है |

श्लोक / पद १८

उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥

ये सभी उदार हैं, मगर ज्ञानी ही ( मुझे ) थामता है – यह मेरा सिद्धांत है | केवल मुझे अद्वितीय लक्ष्य के रूप में रखकर , क्या वही नहीं है जो मेरे साथ रहना चाहता है ?

टिप्पणी – यहाँ ज्ञानी की अद्वितीय महानता की पहचान होती है |

श्लोक / पद १९

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥

कई पुण्य जन्मों के बाद, एक ज्ञानी जो परिपक्व ज्ञान से सोचता है , ” वासुदेव ही मेरा परम प्राप्य (अंतिम लक्ष्य) , प्रापक ( उपाय ) , धारक, पोषक, भोग्य आदि है ” और मेरे प्रति समर्पण करता है | वह विशाल ह्रदय वाला है और ऐसे ज्ञानी को प्राप्त करना ( इस विश्व में ), मेरे लिए कठिन है |

टिप्पणी – यहाँ भगवान ही साधन और लक्ष्य दोनों होने पर प्रकाश डाला गया है।

अगले कई श्लोकों में श्री कृष्ण अन्य देवताओं के उपासकों के स्वभाव के बारे में समझाते हैं , अंततः यह उजागर करने के लिए कि इस संसार में ज्ञानी को ढूंढना कितना कठिन है |

श्लोक / पद २१

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ॥

जिस देवता को भी , जो मेरा शरीर है , उन देवतांतरों ( अन्य देवता ) के जो भी भक्त, निष्ठापूर्वक पूजा करना चाहता है , मैं ऐसे भक्त को केवल उसी देवता के प्रति अटल विश्वास प्रदान करता हूँ |

श्लोक / पद २३

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥

उन कम बुद्धिमान लोगों की पूजा का फल महत्वहीन होता है और उसका अंत है ; क्योंकि जो अन्य देवताओं का पूजा करते हैं , वे उन देवताओं तक पहुँचते हैं, और मेरे भक्त मुझे प्राप्त करते हैं |

२८ श्लोक में बताया गया है कि जिन लोगों के पाप, पुण्य कर्मों से कम हो जाते हैं, वे भगवान की पूजा करना शुरू करते हैं |

२९ श्लोक में बताया गया है कि जो लोग मोक्ष प्राप्त करना चाहते हैं , वे ब्रह्म , अध्यात्म और कर्म के बारे में जानना चाहिए |

श्लोक / पद ३०

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥

ऐश्वर्यार्थी ( जो लोग सांसारिक धन की इच्छा रखते हैं ) मुझे अधिभूत और अधिदैव गुणों से युक्त जानना चाहिए [ इन्हें आठवें अध्याय में समझाया गया है ] ; ( अन्य दोनों [ कैवल्यार्थी ( जो आत्मानंद की इच्छा रखते हैं ) और भगवत् कैंकर्यार्थी ( जो लोग भगवान से कैंकर्य की कामना करते हैं ) ] की तरह ) , वे मुझे अधियज्ञ के गुण से युक्त जानना चाहिए ; ये तीन प्रकार के लोग ( जो अपनी इच्छा पूरी करने के लिये मुझ में लगे हुए हैं ) अपने शरीर त्यागते समय [ मृत्यु के समय ] मुझे स्मरण किये जाने योग्य के रूप में जानें ( अपने इच्छित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ) |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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