४.२४ – ब्रह्मार्पणम् ब्रह्म हविर्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ४ << अध्याय ४ श्लोक २३ श्लोक ब्रह्मार्पणं  ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं  ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥ पद पदार्थ ब्रह्मार्पणम् – यज्ञ में अर्पित किये जाने वाले सामग्रियां  जो ब्रह्म (सर्वोच्च भगवान) के रूप हैं ब्रह्म हवि:- वह आहुति  जो ब्रह्म का स्वरूप हैब्रह्मणा – यज्ञ का … Read more

४.२३ – गतसङ्गस्य मुक्तस्य

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ४ << अध्याय ४ श्लोक २२ श्लोक गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥ पद पदार्थ ज्ञानावस्थित चेतस: – जिसका हृदय पूरी तरह से आत्मज्ञान में लगा हुआ हैगतसङ्गस्य – (उसके फल स्वरूप) ) अन्य विषयों से अलग हो जानामुक्तस्य – (उसके फल स्वरूप) … Read more

४.२२ – यदृच्छालाभसन्तुष्टो

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ४ << अध्याय ४ श्लोक २१ श्लोक यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः ।समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥ पद पदार्थ यदृच्छा लाभ सन्तुष्ट: – जो कुछ भी उसे मिलता है उससे संतुष्ट रहना (अपने शरीर को बनाए रखने के लिए)द्वन्द्वातीता : – जोड़ियों को सहन करना (सुख-दुःख, … Read more

४.२१ – निराशीर्यतचित्तात्मा

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ४ << अध्याय ४ श्लोक २० श्लोक निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रह: |शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् || पद पदार्थ निराशी: – कर्मफल के आसक्ति से मुक्तयतचित्तात्मा – मन को संयम रखते हुए ( लौकिक विषयों के प्रति )त्यक्त सर्व परिग्रह: – सामान्य वस्तुओं के स्वामित्व से मुक्त … Read more

४.२० – त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ४ << अध्याय ४ श्लोक १९ श्लोक त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रय: |कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति स: || पद पदार्थ कर्म फलासङ्गं – कर्म के परिणाम में प्रीतीत्यक्त्वा – त्यागकरनित्य तृप्त: – शाश्वत आत्मा में संतुष्ट होकरनिराश्रय: – अस्थायी देह को विश्वसनीय समझने से मुक्त होकर( जो … Read more

४.१९ – यस्य सर्वे समारम्भा:

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ४ << अध्याय ४ श्लोक १८ श्लोक यस्य सर्वे समारम्भा: कामसङ्कल्पवर्जिता: |ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहु: पण्डितं बुधा: || पद पदार्थ यस्य – उस व्यक्ति के लिए ( जो मुमुक्षु है ( मोक्ष जिज्ञासु ) )सर्वे समारम्भा: – नित्य ( दैनिक ) , नैमित्तिक ( सामयिक) और काम्य … Read more

४.१८ – कर्मण्यकर्म य: पश्येत्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ४ << अध्याय ४ श्लोक १७ श्लोक कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य: |स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत् || पद पदार्थ कर्मणि – कर्म में ( जो कार्य करते हैं )अकर्म – आत्म ज्ञान ( स्वयं के बारे में ज्ञान ) जो कर्म से अलग … Read more

४.१७ – कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ४ << अध्याय ४ श्लोक १६ श्लोक कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मण: |अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति: || पद पदार्थ हि – क्योंकिकर्मण: अपि – कर्म की प्रकृति मेंबोद्धव्यं – जानने योग्य पहलू कई हैंविकर्मण: – विभिन्न प्रकार के कर्म मेंबोद्धव्यं – जानने योग्य … Read more

४.१६ – किं कर्म किम् अकर्मेति

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ४ << अध्याय ४ श्लोक १५ श्लोक किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता: |तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् || पद पदार्थ कवय: अपि – बुद्धिमान भीकिं कर्म – कर्म क्या है ( जो मुमुक्षु को करना चाहिए )अकर्म किं – ज्ञान क्या है ( जो कर्म … Read more

४.१५ – एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ४ << अध्याय ४ श्लोक १४ श्लोक एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभि: |कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वै: पूर्वतरं कृतम् || पद पदार्थ एवं ज्ञात्वा – मुझे इस प्रकार जानकर ( और इन सारे पापों से विमुक्त होकर )पूर्वै: मुमुक्षुभि: अपि – पूर्वज जो मुमुक्षु थे … Read more